Image:
हिन्दू धर्म के सभी देवताओं के विशेष पर्व पर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है।
जैसे नवरात्र में देवी की,
श्रावण मास मे भगवान शिव की,
कार्तिक में लक्ष्मी-नारायण की,
भाद्रपद में गणेश की,
ठीक उसी तरह कार्तिक मास की तेरस को , दीपावली पर लक्ष्मी के साथ निधिपति राजाधिराज "कुबेर" की पूजा-अर्चना की जाती है।
इनकी पूजा से भक्तों की मनोकामना पूरी होकर धनपुत्रादि की प्राप्ति सहज ही मिल जाती है।
मानव जीवन में चारों पुरूषार्थो में अर्थ का विशेष महत्व है।
अर्थ यानि धन के बिना मनुष्य जीवन कष्टमय व्यतीत होता है।
जिनके पास धन है, उनके यहां सभी तरह की सुख-सुविधाएं भोगने को मिलती हैं।
जिस तरह भगवान श्रीगणेश सिद्धि-बुद्धि के स्वामी हैं।
उसी तरह निधिपति राजाधिराज कुबेर धनदान के स्वामी हैं।
इन्हें धनाध्यक्ष एवं नवनिधियों का स्वामी भी कहा जाता है।
इनके वर्णन का इतिहास बहुत प्राचीन है।
इनकी पूजा भगवान शंकरजी के साथ भी होती है।
महालक्ष्मी के साथ तो इनकी विशेष पूजा की जाती है।
उत्तर दिशा के अधिपति भी महाराज कुबेर है,
दस दिक्पालों में यह एक हैं।
सभी देवताओं की पूजा-यज्ञादि के अंत में षोड़षोपचार पूजन के अनंतर आरती एवं पुष्पांजलि का विधान होता है।
पुष्पांजलि एवं राजा के अभिषेक के अंत में ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यंसाहिने नमो वयं वैत्रणाय कुर्म हे... मंत्र का पाठ होता है।
यह महाराज कुबेर की प्रार्थना का मंत्र है।
अत: सभी कामना के फल दृष्टि से एवं धन वैभव का दान करने में वैश्रवण कुबेर ही समर्थ हैं।
कुबेर के जन्मों की कथा इस प्रकार है -
पूर्व जन्म में कुबेर गुणनिधि नामक वेदज्ञ ब्राह्मण थे।
उन्हें शास्त्रों का ज्ञान था और संध्या, देववंदन, पितृ पूजा, अतिथि सेवा करते थे।
सभी प्राणियों के प्रति दया, सेवा एवं मैत्री का भाव रखते थे।
वे बड़े धर्मात्मा थे,
किन्तु कुसंगति में पड़कर धीरे-धीरे अपनी सारी पैतृक संपति गंवा डाली।
इतना ही नहीं अच्छे आचरणों से भ्रष्ट भी हो गए और स्नेह वश इनकी माता ने इनके दुष्कर्मो की चर्चा तक इनके पिता से न की।
एक दिन किसी प्रकार इनके पिता को इनके दुष्कर्मो का पता चला और उन्होंने गुणनिधि की माता से अपनी संपति व पुत्र के बारे में जानकारी चाही।
गुणनिधि पिता के प्रकोप भय से घर छोड़कर भाग निकले एवं वन में चले गए।
इधर-उधर भटकने के बाद गुणनिधि ने संध्या समय एक शिवालय देखा।
उस शिव मंदिर में समीपवर्ती गांव के लोग शिवरात्रि के लिए समस्त पूजन सामग्री और प्रसाद के साथ शिव पूजा का विधान कर रहे थे।
गुणनिधि पूरे दिन भूख-प्यास से परेशान था, इस कारण प्रसाद आदि वस्तुओं को देखने पर उसकी भूख और ज्यादा बढ़ गई।
वह वहीं समीप में छुपकर पूजन देख रहे थे एवं सोच रहे थे कि इन लोगों को नींद आने पर प्रसाद चुराकर अपनी भूख शांत करूंगा।
रात्रि में शिव भक्तों के सो जाने पर एक कपड़े की बती जलाकर फल-पकवानों को लेकर भाग ही रहा था कि उसका पैर एक सोए हुए पुजारी के पैर से टकरा गया और वह व्यक्ति चोर-चोर चिल्लाने लगा।
चोर-चोर की आवाज सुनकर सभी सेवक जाग गए एवं गुणनिधि पर नगर रक्षक ने बाण छोड़ा, जिससे उसी समय गुणनिधि के प्राण निकल गए।
यमदूत जब उसे लेकर जाने लगे तो भगवान शंकर की आज्ञा से उनके गणों ने वहां पहुंचकर उसे यमदूतों से छीन लिया और उसे कैलाशपुरी ले गए।
भगवान शंकर ने गुणनिधि के भूखे रहने को व्रत-उपवास, रात्रि जागरण, पूजा-दर्शन तथा प्रकाश के निमित जलाए गए वस्त्र की बत्ती को आरती मानकर उस पर प्रसन्न हो गए और उसे अपना शिवप्रद प्रदान किया।
पुन: ये ही गुणनिधि दूसरे कल्प में कुबेर हुए।
पुराणों के अनुसार महाराज कुबेर के पिता विश्रवा एवं पितामह प्रजापति पुलस्त्य था। भारद्वाज ऋषि की कन्या इड़विड़ा इनकी मां थी, इनकी सौतेली माता का नाम कैकसी था।
रावण, कुंभकरण और विभीषण इनके सौतेले भाई थे।
इनकी पत्नी का नाम भद्रा है।
इनके दो पुत्र हैं- नल कुबेर और मणीग्रीव,
कैलाश पर स्थित अलकापुरी इनकी राजधानी है।
इनकी सभा में सर्वोच्च रत्न जड़ित सिंहासन पर महाराज कुबेर विराजते हैं।
उस सभा में मिश्र केशी, रंभा, उर्वशी, मेनका आदि अप्सराएं किन्नर, यज्ञ और गंधर्वगण तथा ब्रह्मर्षि देवर्षि तथा ऋषिगण विराजते हैं।
इनकी सेवा में यक्ष एवं राक्षस हर समय रहते हैं।
यक्षों का अधिश्वर बनने के लिए इन्होंने नर्मदा के कावेरी तट पर सौ वर्षो तक घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने इनको यक्षराज बना दिया।
महाराज कुबेर ने जिस स्थान पर तपस्या की उस स्थान का नाम कुबेर तीर्थ पड़ गया है। वहां इनको अनेक वरदान मिले।
रूद्र के साथ मित्रता, धन का स्वामित्व, दिक्पालत्व एवं नल कुबेर नामक पुत्र आदि वर पाते ही धन एवं नव निधियां वहां पहुंच गई।
इसलिए ये नवनिधियों के स्वामी एवं धनाध्यक्ष हुए।
वहीं आकर मरूद्गणों ने राजाधितराज कुबेर का अभिषेक किया, पुष्पक विमान दिया और यक्षों का राजा बना दिया।
राज्यश्री के रूप में साक्षात महालक्ष्मी वहां नित्य निवास करती है।
राजाधिराज धनाध्यक्ष कुबेर अपनी सभा में बैठकर अपने वैभव, धन एवं निधियों का दान करते हैं।
इसलिए इनकी पूजा-अर्चना से ये प्रसन्न होकर भक्तों को वैभव देते हैं।
विशेषकर धन त्रयोदशी एवं दीपावली पर इनकी विशेष पूजा की जाती है।
व्यापार वृद्धि हेतु धन-वैभव, सुख शांति हेतु कुबेर यंत्र की निम्न विधि से साधना करें -
कुबेर यंत्र साधनाकाल समय -
वैसे तो धनतेरस, दीपावली, शिवरात्रि विशेष रूप से कुबेर यंत्र साधना हेतु श्रेष्ठ होती है। किन्तु नवरात्र, होली, ग्रहण, गुरू पुष्य योग, सर्वाथ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग आदि अवसरों पर कुबेर यंत्र साधना भी श्रेष्ठ है।
कुबेर यंत्र -
यंत्र स्वर्ण निर्मित,
रजत निर्मित,
अष्टधातु,
ताम्र निर्मित,
भोजपत्र,
कागज,
वस्त्र आदि पर निर्मित श्रेष्ठ होता है।
इसे ताम्र पर निर्मित करा लें। यह ताम्रपत्र सभी को सुलभ हो जाता है। इसलिए ठीक रहता है।
विधि-
साधक स्वयं या किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा यह साधना कराएं।
प्रात:काल या प्रदोश काल मे स्नानादि से निवृत होकर पूर्वाभिमुख या उतराभिमुख आसन पर बैठें।
अपने सामने पूजन सामग्री एवं माला व यंत्र एक पाटे पर रख लें।
सर्व प्रथम आचमन प्राणायाम करके संकल्पपूर्वक गणेशाधि देवताओं का ध्यान करके पूजन करें, फिर किसी ताम्र पात्र में कुबेर यंत्र को रखकर धनाध्यक्ष कुबेर का ध्यान करें।
" मनुजवाह्य विमानवरस्थितंगुरूडरत्नानिभं निधिनाकम् !
शिव संख युकुतादिवि भूषित वरगदे दध गतं भजतान्दलम् !! "
तत्पश्चात , यथासंभव निम्न मंत्रों मे से किसी भी एक मंत्र की कम से कम 11 माला करें -
" ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये
धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा !"
" कुबेर त्वं धनाधीश गृहे ते कमलास्थिता !
तां देवी प्रेशयाशु त्वं मद्-गृहे ते नमो नमः!! "
" ॐ एं ह्रीं यक्षराजाय कुबेराय वैश्रवणाय धनाधिपतये धनधान्य समृद्धि में देहि देहि दापय दापय स्वाहा ! "
" ॐ श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराए नमः! "
!! ॐ कुं कुबेराये नमः !!