जानिए क्या है होलाष्टक

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी होलाष्टक तिथि का आरंभ है। इस तिथि से पूर्णिमा तक के आठों दिनों को होलाष्टक कहा गया है। इस वर्ष होलाष्टक 14 मार्च से आरंभ होंगे  होलाष्टक अवधि भक्ति की शक्ति का प्रभाव दिखाने की है। सत्ययुग में हिरण्यकश्यपु ने घोर तपस्या करके भगवान विष्णु से अनेक वरदान पा लिए।
वरदान के अहंकार में आकंठ डूबे हिरण्यकश्यपु ने अनाचार-दुराचार का मार्ग चुन लिया। भगवान् विष्णु से अपने भक्त की यह दुर्गति सहन नहीं हुई और उन्होंने हिरण्यकश्यपु के उद्धार के लिए अपना अंश उनकी पत्नी कयाधू के गर्भ में स्थापित कर दिया, जो जन्म के बाद प्रह्लाद कहलाए। प्रह्लाद जन्म से ही ब्रह्मज्ञानी थे। वे हर पल भक्ति में लीन रहते। उन्हें सभी नौ प्रकार की भक्ति प्राप्त थीं, जिनका उन्होंने इस तरह वर्णन किया है- श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्यंसख्यमात्म निवेदनम। यानी श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, व आत्मनिवेदनम।
प्रह्लाद की भक्ति का उनके पिता हिरण्यकश्यपु बहुत विरोध करते थे। प्रह्लाद को भक्ति से विमुख करने के उनके सभी उपाय जब निष्फल होने लगे तो उन्होंने प्रह्लाद को फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी को बंदी बना लिया और मृत्यु हेतु तरह-तरह की यातनाएं देने लगे। प्रह्लाद विचलित नहीं हुए। इस दिन से प्रतिदिन प्रह्लाद को मृत्यु देने के अनेकों उपाय किए जाने लगे, पर वे हमेशा बच जाते। इसी प्रकार सात दिन बीत गए। आठवें दिन अपने भाई हिरण्यकश्यपु की परेशानी देख उनकी बहन होलिका (जिसे ब्रह्मा द्वारा अग्नि से न जलने का वरदान था) ने प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में भस्म करने का प्रस्ताव रखा और होलिका जैसे ही अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती आग में बैठी, वह स्वयं जलने लगी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।
तभी से भक्ति पर आघात हो रहे इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है। भक्ति पर जिस-जिस तिथि, वार को आघात होता, उस दिन और तिथियों के स्वामी भी हिरण्यकश्यपु से क्रोधित हो जाते थे। इसीलिए इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं।
इसकी वजह से इन दिनों में गर्भाधान, विवाह, नामकरण, विद्यारम्भ, गृह प्रवेश व निर्माण आदि अनुष्ठान अशुभ माने गए हैं। तभी से फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन से ही होलिकादहन स्थान का चुनाव किया जाता है। पूर्णिमा के दिन सायंकाल शुभ मुहूर्त में अग्निदेव की शीतलता एवं स्वयं की रक्षा के लिए उनकी पूजा करके होलिका दहन किया जाता है।